लोगों को शायद अब याद भी नहीं होगा कि आजादी के बाद लगातार हुए चार चुनाव वन नेशन वन इलेक्शन की सोच पर ही कराए गए थे और 1952 1957 1962 और 1967 के चुनाव लोकसभा और पूरे देश की विधानसभाओं के लिए एक साथ हुए थे
हालांकि तब ऐसा करना कोई कानूनी बाध्यता नहीं थी लेकिन इसके बाद केंद्र द्वारा राज्य सरकारों को बर्खास्त किए जाने के बाद लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग करने की परंपरा शुरू हो गई
मौजूदा मोदी सरकार चाहती है की कानून बनाकर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ करने की व्यवस्था कायम की जाए और इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है की एक साथ चुनाव कराने से जहां पैसों के बचत होगी वहीं आचार संहिता होने के कारण विकास कार्य भी नहीं रुकेगा।
इसके लिए भले ही आज केंद्र सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में कमेटी बना दी हो और यह प्रचार भी चल रहा हो की सितंबर महीने में ही सरकार कोई बड़ा फैसला लेने जा रही है लेकिन यह भी सच है कि इस व्यवस्था को फिर से लागू करना अब बहुत आसान भी नहीं है क्योंकि इसके लिए जनप्रतिनिधि कानून में बदलाव करना होगा और ऐसा तभी हो पाएगा जब संसद के दोनों सदनों सहित देश की सभी विधानसभाओं में से दो तिहाई सरकारी इस प्रस्ताव का समर्थन करें
यह सच है कि इस समय लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर होने के कारण देश में पूरे साल हर महीने में कहीं ना कहीं चुनाव होते रहते हैं जिसका असर विकास कार्यों पर पड़ता है लेकिन इस व्यवस्था का विरोध करने वाले तर्क दे रहे हैं कि केंद्र की सरकार और राज्य की सरकार चुनने के मुद्दे अलग-अलग होते हैं इसलिए एक साथ चुनाव कराने का कोई बहुत मतलब नहीं रह जाता वही विधानसभाओं
यह तर्क भी दिया जा रहा है लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल एक साथ समाप्त हो और एक साथ शुरू हो यह तय कर पाना बड़ा मुश्किल है क्योंकि आजादी के बाद अब तक दो बार ऐसा मौका आया है जब लोकसभा का कार्यकाल जल्दी समाप्त किया गया है और एक बार उसका कार्यकाल बढ़ाया गया है जबकि राज्यों के बारे में तो कोई मापदंड ही नहीं है कि कब कौन सरकार बर्खास्त न हो जाए ऐसी हालत में या तो नहीं सरकार चुनने में देरी होगी जिसका सीधा असर आम जनता पर पड़ेगा जिसे यह कहकर समझाया जाता है कि उसके हाथ में सबसे बड़ी ताकत वोट की है और असंतुष्ट होने पर वह किसी भी सरकार को बेदखल कर सकती है।